अंक 2: फ़्लैशबैक की कहानी
मेरी कहानी की शुरुआत तब से होती हैं जब मैं पैदा हुआ
था…………जाहीर हैं उससे
पहले तो मैं था नहीं, तो कहानी किस बात की !
बचपन से मैं शांत, शर्मिला और कम बोलने वाला बच्चा था । लोग अक्सर मुझे शर्मिला कहते थे, लेकिन ऐसा वास्तव में नही था। मुझसे कम
मिलने-जुलने के कारण लोगो को ऐसा लगता था । प्राइमरी और माध्यमिक कक्षाओं मे, मैं
ठीक ही था असली कहानी तो मेरी ज़िंदगी की, दसवीं कक्षा से शुरू हुई । बचपन से मेरी रुचि गणित में ही थी तो लगा कि शायद इसी में ही अपना पूरा जीवन काट लूंगा तो मैंने अपने आगे
की पढ़ाई के लिए गणित को अपना प्राथमिक विषय चुना । जब से पढ़ाई को जाना
समझा, बस इंजीनियर बनने का सोंच लिया ,
पिताजी भी अक्सर कहते थे की तुझे तो मैं इंजीनियर बनाऊँगा . . . .
बस जानने समझने की उम्र से ही इंजीनियर बनने के सपने देखने लगा था, लेकिन कभी सोचा नहीं था कि छोटे से
इस कदम का आगे क्या फैसला होगा । विषय चुनने के बाद जैसे सारी बाजी ही उलट पढ़ गई
। मेरे लिए कल तक जो चीजें आसान थी आज वो कठिन लगने लगे थे। जैसे-तैसे बारहवीं तक की पढ़ाई की, और मैं भी लग गया इंजीनियरिंग के एंट्रेंस एग्जाम की तैयारी में, जब सुना
तो सब आसान लग रहा था ।
पहले अटेंड में पेपर दे कर आया तो सबकुछ दूध का दूध और पानी
का पानी हो गया । मुझे समझ आने लगा था कि शायद मैं गलत रास्ता चुन चुका हूं, लेकिन अब
बहुत देर हो चुकी थी । दोबारा इन सब के बारे में सोचने का समय नहीं था । बस फिर क्या
था पास के ही एक इंजीनियरिंग कॉलेज में पिताजी ने प्रवेश दिला दिया । प्राइवेट कॉलेज होने
के कारण पढ़ाई भी उसी तरह की होती थी । अपनी आकांक्षाओं वाली इंजीनियरिंग की पढ़ाई को
अब मैं भूलने लगा था । बस हर वक्त सोचता था कि कैसे यह सेमेस्टर निकल जाए ।
ज्यादा से ज्यादा नंबर कैसे लाया जाये । हमेशा इस बात की टेंशन होती थी कि कैसे
मैं अपने सारे एग्जाम क्लियर करूँ ।
वक्त और हालात मुझे ऐसा बना रहे थे की सुबह 9:00 बजे की ट्रेन से कॉलेज और शाम के 5:00 बजे की ट्रेन से घर वापसी में दिन खत्म होने लगा । कॉलेज से घर और घर से कॉलेज... यही मेरी जिंदगी
बन गया था । मैं समझ नहीं पा रहा था की मैं आखिरकार जीवन मे कर क्या रहा हूँ । शायद मैं एक ऐसे लोगों की भीड़
में था जहां ना कोई ज्ञान की बातें करना चाहता है ना कोई नया इन्वेंशन कि । जैसा मैंने सोचा था वैसी इंजीनियरिंग नहीं निकली । अपने सपनों
को को इस तरह टूटते देखना मेरे लिए बहुत बुरा था ।
इन सब से अनजान मेरे घर वाले मुझसे खुश थे क्योंकि उन्हें मार्कशीट पर इतने नंबर
दिख जाते थे जितने कि वह मुझसे अपेक्षा करते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता था कि यह मेरी
काबिलियत का नहीं ये मेरी डर का नतीजा है । ऐसे ही दिन कट रहे थे, ना दिनों में सुकून
था और रात में नींद । हमेशा इस बात की फिक्र रहती थी कि भविष्य कैसा होगा । कभी-कभी लगता कि सब कुछ छोड़ दूं पर हमेशा परिवार का सोंच चुप हो जाता ।
घर का बड़ा बेटा होने के
नाते, पिताजी के बाद घर की ज़िम्मेदारी मुझे ही उठानी हैं । बेशक घर में माँ और बहन अपनी जेब खर्च के लिये कमाती हैं, लेकिन पिता की रिटायरमेंट में अब ज्यादा दिन नहीं हैं, हालांकि किसी ने खुल कर नहीं कहा लेकिन ये खुद की जिम्मेदारी थी, की इन चंद सालों में खुद को काबिल बना लूं ।
ज़िन्दगी ऐसे ही कट रही थी, सुबह से शाम और शाम से सुबह कब हो जाती समझ नही आता था । कहीं न कहीं
रोज की ज़िंदगी में इतना रम सा गया था की अपने लिए वक्त भी नहीं मिल पता था । हर वक्त, हर पल बस ज़हन मे एक ही सवाल आता था की आखिर मैं ये सब अपनी ज़िंदगी के साथ
क्या कर रहा हूँ।
ऐसा अक्सर आपके
साथ तब होता हैं ? जब आप अपने आस-पास की दुनिया से कुछ ज्यादा
ही आस लगा लिए होते हों , मैं भी अपनी उस तरह की ज़िंदगी से
नाखुश सा था . . .
जैसे-तैसे कॉलेज
खत्म हुआ, निराशा और जीवन से आस कम होने लगी थी ।
जैसे जैसे
इंजीनियरिंग खत्म हुई, वैसे-
वैसे ही उम्मीद भी खत्म होने लगी । कई जगह अर्जियां लगाई लेकिन रटे ज्ञान से कौन
नौकरी दे....। 4 साल की
इंजीनियरिंग एक A4 पन्ने
पर आ सिमटी... मेकेनिकल इंजीनियरिंग की डिग्री हाथ में थीं लेकिन मेकेनिकल वाला ज्ञान
रद्दी भर का भी नहीं था । जब कॉलेज की भागम-भाग
से जीवन उबरा तो वक्त मिला खुद के बारे में सोचने का .... वरना रोज़मर्रा के जीवन
में तो जीवन के गाड़ी जरा थम सी गई थीं ।
खाली बैठे विचार
आया क्यूं न दिल हल्का किया जाए ।
अक्सर हम काफी
चीजों का बोझ दिल मे दाबये बैठे होते हैं मैं भी कुछ वैसा ही था । लेकिन मेरे पास दिक्कत यह थीं की में दिल
हल्का करूं तो किस पर करूं... !
याद आया पिछले साल दोस्तों ने जन्मदिन पर डायरी दी
थीं , किसी ने
कहा अपनी बात डायरी पे लिख दो । तो में शुरू हो गया.....
याद आया कि सबसे बड़ा दिल
का बोझ .... बचपन वाला प्यार था
अक्सर हम बचपन
के प्यार को दिल से कुछ ज्यादा ले लेते हैं । मैं भी कुछ उसी प्रकार का ही था । इसलिए मैंने अपनी पहली किताब , अपनी प्रेमिका पर लिखी । दोस्त के पिता जी
खुद की प्रिंटिंग्र प्रेस थीं, मेरे दोस्त ने चुपके से डायरी उठा कर अपने पिता को पढ़वा दी, दोस्त के पिता
अक्सर आरती की किताब छापा करते थे । वे भी
शायद ये सब छाप-छाप कर थक चुके थे तो मेरा मन रखने के लिए किताब की 20 प्रतियां छाप दी । अब आप तो जानते हैं की रेलवे- स्टेशनों मे तो सब बिकता हैं । दोस्तों यारों
ने मिल कर रेलवे- स्टेशन पर मेरी किताब बिकवा दी । अब ये तो समझ आने लगा था की इस
मेकेनिकल इंजीनियर के पास, एक कला और भी हैं, और वो हैं लेखन-कला । अपने जेब खर्च के लिए
मैं आगे चलकर छोटी कहनियों और चुटकुलों की किताबें लिखने लगा जो रेलवे
स्टेशनों में बिकती रही । ऐसे ही जीवन कटा रहा था ।
अब आप सोंच रहे
होंगे कि.....
आखिर पहली किताब
में ऐसा क्या लिखा होगा ? जो मेरी किताब इतनी चल गई !
ये जानने के लिए
तो आपको अगला अध्याय पढ़ना पड़ेगा ?
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