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Showing posts from 2017

मन की बात #1 - मेरी नानी

बहुत मुश्किल होता हैं अपने किसी करीबी के बारे मे लिखना , अक्सर हमारी ज़िंदगी मे कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनका हमें ज्यादा एहसास नहीं होता लेकिन जब वो हमारी ज़िंदगी से चले जाते हैं तब अलग सी कमी रह जाती हैं । मेरे लिए भी मुश्किल था अपने ज्याति ज़िंदगी के बारे लिखना , कहानियाँ तो हम सोंच कर , महसूस कर लिख लेते हैं , पर आपके अपने जस्बात लिखना कठिन होता हैं। पर वो तो कहते हैं न जब भाव मन मे प्रबल होते हैं तो उन्हे शब्द बनने मे ज्यादा समय नहीं लगता । मेरे बचपन से ही मेरी नानी और दादी बस थी , नाना और दादा को तो बचपन से ही नहीं देखा था । दादी के साथ तो कुछ साल रहे थे और जब वो गुजरी तब मैं छोटा था , शायद महसूस तो उस वक़्त भी हुआ होगा लेकिन व्यक्त नहीं हो पाया होगा । नानी की याद मेरे मन मे तब से हैं जब मामा के कच्चे घर हुआ करते थे , सब कुछ मन मे एकदम वैसे ही हैं जैसा उस वक़्त हुआ करते थे । वही कच्ची गलियाँ , लकड़ी के दरवाजे , मामा की छोटी सी दुकान , किनारे पे रखे पैरावट । फर्क बस आज इतना हैं की आज वो सब यादें मन मे हैं । जब-जब मैं नानी शब्द लिखता हूँ , मेरे मन में नानी का वही मुस

एक खत माँ के नाम ....

आज का ये ब्लॉग एक खत के रूप मे हैं  जिसमे एक बेटी अपने माँ को अपने नए शहर के , अपने काम-काज के अनुभव बताती हैं , और वो एक तुलनात्मक संबंध बनती हैं अपने पुराने घर और आज के अपने घर (फ्लैट) मे.... भले इस ब्लॉग के लिखे शब्द मेरे हैं पर मैंने कोशिश किए हैं की एक लड़की के मन की बात को लिख पाऊँ....उम्मीद करता हूँ आपको पसंद आएगी... एक खत माँ के नाम .... प्रणाम माँ तुम्हारी चिट्ठी मिली , पढ़कर बहुत अच्छा लगा , आज के जमाने मे कौन आखिर चिट्ठियाँ लिखता हैं , पर हमेशा तुम्हारी जिद और अपने आप की यूं फोन से दूरी मेरी तो समझ से परे हैं..... मैंने इस महीने थोड़े ज्यादा पैसे बैंक मे डाले हैं ... हो सके तो इस महीने पास की दुकान से मोबाइल ले लेना जिससे मैं तुमसे रोज बात कर सकूँ ... तुमने मेरे ऑफिस के बारे मे पूछा था... वह नजदीक मे ही हैं... पर मुझे फिर भी वहाँ जाने के लिए बस या मेट्रो लेनी पड़ती है... ऑफिस की तरफ से मुझे एक फ्लैट दिया गया हैं । हालांकि एक कमरे वाला ही हैं पर वहाँ के घर से बड़ा हैं । सुबह से शाम आफिस , और रात को गाड़ियों के शोर मे पूरा समय निकल जाता हैं , रविवार की छुट्ट

बात छेड़ दी, जो तुमने

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बात छेड़ दी, जो तुमने सब कुछ शांत, अविरल से था मेरा जीवन जैसे बहते हुए पानी में तिनके की भांति , नीले गगन में सफेद बादलों की भांति , धीरे धीरे बहते हवाओं में उस उड़ते पतंगों की भांति ..... सब कुछ एक पल में बदल सा दिया तुमने, जो तुम ने रुक कर बात क्या छेड़ दी . . . अधूरी थी ज़िंदगानी मेरी न कल , न आज की परवाह थी कभी घर-बार , न रास्तों की दरकार थी कभी तन्हा थे, न किसी की जरूरत थी कभी ( पर फिर भी ) सब कुछ एक पल में बदल सा दिया तुमने, जो तुमने रुक कर क्या बात छेड़ दी . . . बेताब से थे सपने मेरे मंज़िल न ठिकाने की जररूत थी मुझे सादे से कपड़े, सादी सी जीवनी थी मेरी न कोई शौक, ना कोई कमजोरियां थी मेरी सब कुछ एक पल में बदल सा दिया तुमने, जो तुमने रुक कर बात क्या छेड़ दी . . . अकेले थे , मगर खुश थे सही खुद को समझ रहे थे , सब कुछ संभाल रहे थे सही अव्वल न थे, पर कभी आख़री भी न थे न जाने वो वक़्त का तकाज़ा क्या रहा जो . . .  सब कुछ एक पल में बदल दिया तुमने, जो तुमने रुक कर क्या बात छेड़ दी . . . जो तुमने रुक कर क्या बात छेड़ दी . . . कभी

सरला

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जीवन के मजधार मे , जब आपकी सकारत्मकता , नकारात्मकता मे तब्दील होने लगे तब बहुत मुश्किल हो जाता हैं की, आप कैसे आने वाली परिस्थिति से कैसे निपटे . . .लेकिन ऐसे मे आप कुछ कर जाते हैं तो वो किसी जंग से किसी कम नहीं , आज की कहानी सरला , कुछ इसी दृष्टिकोण पर आधारित हैं । कहानी के लेखक " तरुण कुमार सोनी " और यह लेख “अतिथि लेखन” के अंतर्गत हैं सरला सरला के बापू, जरा बाजार से आते वक़्त ये सामान भी लेते आना, ये कहकर सरला की आम्मा ने एक पर्ची उनके हाथों में थमा दी । घी, बेसन, दही, गुड़, सूखे मेवे, दूध, बासमती चावल, खोवा... ये क्या सूची तो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। इतनी बड़ी सूची? सरला के बापू शैलेश ने अचंभित भाव से अपनी प्राणप्रिये की और देखकर कहा। हां, तुम्हें तो दोस्तों संग गप्पे लड़ाने से फुर्सत ही कब मिलती है, सुबह से दफ्तर चले जाते हो, और शाम को तो न जाने ऐसे गायब होते हो जैसे गधे के सर से सींग, सरला की माँ ने बनावटी गुस्सा दिखाकर चुटकी ली। शैलेश साहब ने स्तिथि भांपते हुए तुक्का मारा, कहा क्यों री तेरे मायके से साले साहब आने वाले हैं क्या भाग्यवान? सरला

हिन्दी दिवस विशेष

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नमस्कार ! दोस्तों आज 14 सितंबर , हिन्दी दिवस के दिन कुछ बातें आपके समक्ष कहना चाहूँगा । हिन्दी न सिर्फ एक भाषा हैं बल्कि ये एक संस्कृति हैं , धरोहर हैं हम भारतीयो के लिए । आज कहने को तो हिन्दी विश्व की चौथी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा हैं लेकिन , आज कहीं न कहीं मैंने महसूस किए हैं की हिन्दी का वर्चस्व उतना नहीं रह गया है , जितना की पहले था । और दुख का कारण यह हैं की इसका प्रमुख कारण हम ही हैं.... आजकल की ये नये-युग , हमे हिन्दी से उस तरीके से दूर कर रहे हैं जैसे की बचपन मे छूटते वो पुरानी किताबें , दिन ब दिन हिन्दी के गिरते हालत सोचने को मजबूर कर देते हैं , कुछ दिनों पहले मैंने सुना था की कुछ स्कूलों मे तो उन्होने हिन्दी भाषा पड़ाना ही बंद कर दिया.... सुन कर बहुत दुख हुआ । बुरा इस बात मे नहीं की किसी एक भाषा की प्रबल दावेदारी मे , बुरा इस बात मे हैं की अपनी मातृभाषा का खो जाने का .... खैर आज के दिवस पर मेरी आपसे एक विनम्र निवेदन हैं की आज के पूरे दिन आप जहां पर भी हो सके हिन्दी भाषा का प्रयोग करें , वैसे तो ये हमे रोज करनी चाहिए लेकिन आज का महत्व कुछ और रंग दे

निरुमा का घर

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कहानी के सूत्रधार - मिस्टर चैटर्जी - पेशे से एक व्यवसायी हैं , लेकिन अपनी आजीविका के लिए एक सरकारी आफिस मे नियुक्त हैं , अच्छे पद पर नियुकती के कारण सरकारी बंगला मिला , जिसमे वे अपनी पत्नी के साथ निवास करते थे । मिसेस चैटर्जी - मिस्टर चैटर्जी की पत्नी , वो स्कूल मे अध्यापिका हैं । मेड (निरुमा) ( मिसेस चैटर्जी के घर पर काम करने वाली ) - मेड भी मिसेस चैटर्जी के घर मे रहती हैं , उनके लिए अलग से कमरे हैं , जो की मुख्य घर से ही सटा हैं प्राय : Servants Quarter के रूप मे ... जिसमे वे रहते हैं । नरेश - मेड (निरुमा) के पति हैं जिनके साथ वो मिसेस चैटर्जी के घर मे रहता हैं , परंतु मेड के रूप मे केवल निरुमा ही काम करती हैं नरेश अपना घर चलाने के लिए पास के ही कारखाने मे काम करते हैं ।                   नरेश और निरुमा का एक बच्चा भी हैं । शाम का समय दरवाजे के डोरबेल की आवाज़ - टिलिंग-टाउन...!!!... टिलिंग-टाउन...!!!...टिलिंग-टाउन...!!! कुछ समय  पश्चात्  दरवाजा खुलता हैं , मिसेस चैटर्जी की मेड ने दरवाजा खोला और कहा क्या काम हैं ,   इससे पहले मैं क

चिड़ा

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एक सामान्य दोपहर की तरह वही चिलचिलाती धूप , शांत भाव से बहता पानी और वो गरम हवा के झोकें ,   लेकिन आज समुद्र कुछ अलग सा था , थोड़ी ज्यादा अँगड़ाई ले रहा था मानो किसी को मिलने को बेताब हो । कहते हैं की अपने ही खुशियों मे अपने हीं शरीक होते हैं , शायद प्रकृति भी कुछ ऐसा ही कर रही हों । वही दूसरी और तट से लगे नारियल के वृक्ष मे थोड़ी आज हलचल सी मची थी , चूंकि आज अंडो से बच्चे निकलने वाले हैं । नारियल के वृक्ष पर दो सफेद पंछी रहा करते थे । दोनो पंछी काफी खुश र हा करते थे बस जीवन मे कमी एक बच्चे की थी और अंततः आज वो दिन आ ही गया जब अंडे से बच्चे निकले । थोड़ी देर बाद अंडे में कुछ हलचल   हुई , अंडा लहराने लगा और एक टूक समय पश्चात बच्चे ने अंडे को फोड़ कर उसमें से अपना पाँव निकाला और धीरे से बाहर आ गया  . . . नन्हे से छोटी चि ड़ि या को देख माँ चिड़िया बड़ी खुश हुई , उसे अपने चोंच और पांव से पुचकार कर रही थी तभी उसकी नज़र बच्चे के पंखों पर पड़ी वो शायद सही से बने न ही थे , लेकिन अभी नवजात है और बड़े होने के साथ इसके पंख भी बाद जाएंगे ऐसा सोच कर अनदेखा कर दिया । नन्ही च