मन की बात #1 - मेरी नानी


बहुत मुश्किल होता हैं अपने किसी करीबी के बारे मे लिखना, अक्सर हमारी ज़िंदगी मे कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनका हमें ज्यादा एहसास नहीं होता लेकिन जब वो हमारी ज़िंदगी से चले जाते हैं तब अलग सी कमी रह जाती हैं । मेरे लिए भी मुश्किल था अपने ज्याति ज़िंदगी के बारे लिखना, कहानियाँ तो हम सोंच कर, महसूस कर लिख लेते हैं , पर आपके अपने जस्बात लिखना कठिन होता हैं। पर वो तो कहते हैं न जब भाव मन मे प्रबल होते हैं तो उन्हे शब्द बनने मे ज्यादा समय नहीं लगता ।

मेरे बचपन से ही मेरी नानी और दादी बस थी, नाना और दादा को तो बचपन से ही नहीं देखा था । दादी के साथ तो कुछ साल रहे थे और जब वो गुजरी तब मैं छोटा था, शायद महसूस तो उस वक़्त भी हुआ होगा लेकिन व्यक्त नहीं हो पाया होगा ।

नानी की याद मेरे मन मे तब से हैं जब मामा के कच्चे घर हुआ करते थे, सब कुछ मन मे एकदम वैसे ही हैं जैसा उस वक़्त हुआ करते थे । वही कच्ची गलियाँ, लकड़ी के दरवाजे , मामा की छोटी सी दुकान, किनारे पे रखे पैरावट । फर्क बस आज इतना हैं की आज वो सब यादें मन मे हैं ।
जब-जब मैं नानी शब्द लिखता हूँ, मेरे मन में नानी का वही मुस्कुरता हुआ चेहरा याद आता हैं । बचपन में मेरी आदत थी की मैं अपने बड़ों के पाँव नहीं छूआ करता था, मम्मी-पापा के काफी कहने के बाद मैंने नानी के पाँव छुने शुरू किए । मेरे हाथ शायद ढंग से पाँव को छूते भी नहीं रहे होंगे और उतने मे ही नानी मेरे चेहरे से हाथ लगाकर अपने हाथ को चूमकर मुस्कुराहट भरी आवाज़ मे वो आशीर्वाद देती । मैं जब-जब नानी के घर जाता, वो अक्सर मेरे और मेरे भाई के साथ ऐसा करती थी । परिवार मे सब से छोटे होने के कारण शायद नानी का ये लाड़, हमारे प्रति स्वाभाविक था ।

बचपन में तकरीबन हर साल हम नानी के यहाँ चले ही जाते थे, जैसे जैसे बड़े- बड़े होते गए , आना-जाना कम होता गया । पर माँ की हमेशा कोशिश थी की हम उनसे मिले, हाल के ही कुछ सालों मे उनकी तबीयत दिन-ब-दिन खराब होती जा रही थी । कुछ साल पहले वो गिर भी गईं थी तब से उनका चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया था । लेकिन अपनी तकलीफ वों कम ही बताया करती थी ।

कुछ दिनों पहले उनकी तबीयत ज्यादा बिगड़ी, पापा के व्यस्त होने के कारण, मैं माँ को लेकर मामा के घर गया, नानी को देखने । मन बहुत शांत था, मन कुछ भी नहीं सोचना चाहता था । मामा के घर पहुँचते ही, सबसे पहले मेरी नजर वहाँ गयी जहां नानी हमेशा मुझे बैठी हुई मिलती थी, लेकिन वहाँ वह नहीं मिली । मेरे लिए ज्यादा मुश्किल था उस कमरे मे जाना, माँ तो उनके बिगड़ती तबीयत को लगातार देखती आ रही थी । जब भी मामा के तरफ से कोई भी खबर आती माँ नानी को देखने आ जाती , लेकिन मैं एक लंबे समय के बाद नानी को देख रहा था । मैं माँ के पीछे पीछे उस कमरे मे दाखिल हुआ । आज शायद वो मुस्कुराते हुए चेहरे और वो हाथ आगे नहीं आए, बंद आंखे और सख्त शरीर ने उनकी जगह ले ली थी । हमे गंगा-जल पिलाने को कहा गया । जैसे-तैसे  माँ ने एक चम्म्च पानी पिलाया,दूसरे मे ना का इशारा हुआ । मैंने बड़ी जटिलता से पानी का गिलास उठाया, कोशिश थी की पानी पीला दूँ , पर वो भी नहीं हो सका । लौटते वक़्त एक अजीब सी शांति थी , न कोई मन मे सवाल न कोई जवाब । बस मौन । वहाँ से लौटने के बाद शायद माँ को भी लगने लगा था की अब ज्यादा दिन नहीं हैं । गाँव से लौटने के बाद आई हुई हर फोन की घंटी अक्सर माँ को डरा दिया करती थी । वो रोज कहीं ना कहीं उनकी बात बता कर उनको याद किया करती थी और वो नानी के इस हालत पे भी बड़ी दुखी थी ।

आखिर उस दिन 7 बजे फोन की घंटी बजी, शायद मामा ने फोन किया था, माँ ने फोन उठाया- हैलो बोलते ही फोन कट गया - वो भी बताने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाये शायद ... बिना बोले ही फोन काट दिया । बताने के लिए मामा ने पापा का सहारा लिया । पापा को ये बात पता चल चुकी थी । मामा के मना किया था की माँ को ये बात ना बताई जाये , मामा उन्हे सुबह सीधे गाँव बिना बताए लाने के लिए कह रहे थे । पर पापा ने तुरंत बताना सहीं समझा । उस दिन पता नहीं पापा जल्दी खाना-खाने की ज़िद क्यू कर रहे थे, शायद वो जानते थे की माँ ये सब सुन खाना भी ना खा पाये । आखिर कब तक वो भी छुपा कर रख पाते, आखिर माँ तो माँ होती हैं । खाना खाने के बाद उन्हे बताना ही पड़ा ।
माँ के लिए वो रात तो बहुत ही मुश्किल से ही कटी होगी । कभी-कभी हम न चाहते हुए भी ऐसे पलों को याद करते हैं जो हमे दुख दे। शायद माँ भी उस रात अपनी माँ के साथ बिताए हुए पलों को याद करती रहीं होगी । हमारा मन भी कुछ ऐसा होता हैं, हम ना चाहते हुए भी आपका मन उन लम्हों को याद कर आपके अंखे नाम करने की कोशिश करता हैं ।

मेरे लिए भी सब कुछ एकदम शांत सा था, एक अजीब सी शांति थी । बेशक आँख से आसू न गिरे हों लेकिन मन उस हर तस्वीर को बार बार लाकर आपको तोड़ने की कोशिश करता हैं जिसमे नानी की झलक हों ।

आज भी मैं जब सोंचता हूँ तब मुझे लगता हैं, की ऐसा कुछ हुआ ही नहीं हैं, आज भी मैं अगर उन्ही रस्तों को पार करता हुआ, उसी गाँव में जाऊंगा, उन्ही सकरी गलियों से पार करते हुए, जैसे मैं मामा के घर पहुचुंगा और दरवाजे के खुलते ही मुझे नानी उसी मुस्कुराते चहरे के साथ मिलेगी । लेकिन ये सच नहीं हैं । हालांकि मैं नानी से ज्यादा घुला-मिला नहीं था, पर फिर भी उनकी कमी मुझे ज्यादा ही खलेगी । उनका व्यक्तित्व ही ऐसा था की जो हमेशा मुझे प्रभावित करती रहेगी ।


हमारे जीवन मे ऐसे बहुत से लोग होते है जिनकी एहमियत या जुड़ाव हम ज्यादा महसूस नहीं कर आते लेकिन जब वो हमारे जीवन से चले जाते हैं उनकी एक छाप, एक कमी हमेशा से रह सी जाती हैं ।

Comments

  1. सशुध्द अंतरआत्मा जब शब्दों के धागों में पिरोई जाती है तब अनायास ही हर कृति वेदमंत्र बन जाती है।

    निःशब्द।

    कोटि कोटि धन्यवाद!

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