सरला
जीवन के मजधार मे, जब आपकी सकारत्मकता ,नकारात्मकता मे तब्दील होने लगे
तब बहुत मुश्किल हो जाता हैं की, आप कैसे आने वाली परिस्थिति से कैसे निपटे . . .लेकिन ऐसे
मे आप कुछ कर जाते हैं तो वो किसी जंग से किसी कम नहीं, आज की
कहानी सरला, कुछ इसी दृष्टिकोण पर आधारित हैं । कहानी के लेखक " तरुण कुमार सोनी " और यह लेख “अतिथि लेखन” के अंतर्गत हैं
सरला के बापू, जरा बाजार से आते वक़्त ये सामान भी लेते आना, ये कहकर सरला
की आम्मा ने एक पर्ची उनके हाथों में थमा दी। घी,
बेसन, दही, गुड़, सूखे मेवे, दूध, बासमती चावल, खोवा... ये क्या सूची तो खत्म होने
का नाम ही नहीं ले रही थी। इतनी बड़ी सूची? सरला के बापू शैलेश ने अचंभित भाव से
अपनी प्राणप्रिये की और देखकर कहा। हां, तुम्हें तो दोस्तों संग गप्पे लड़ाने से
फुर्सत ही कब मिलती है, सुबह से दफ्तर चले जाते हो, और शाम को तो न जाने ऐसे गायब
होते हो जैसे गधे के सर से सींग, सरला की माँ ने बनावटी गुस्सा दिखाकर चुटकी ली।
शैलेश साहब ने स्तिथि भांपते हुए तुक्का मारा, कहा क्यों री तेरे मायके से साले
साहब आने वाले हैं क्या भाग्यवान? सरला की माँ, निर्मला ने मजाकिया भाव से कहा, वो
क्यों इस दड़बेघर में आने लगे, भला उनकी यहाँ क्या पूछ, तुम तो चाहते ही हो कि
भगवान् करे मैं मायके चली जाऊं और मेरा पिंड छूटे। शैलेश ने कहा, अब पहेलियाँ न
बुझाओ, बता भी दो किस ख़ुशी में घर में लजीज व्यंजन बनाये जा रहे हैं? निर्मला ने चहक
कर कहा, हमारी सरला अपनी कक्षा में अव्वल आई है, पूरे पिच्यासी प्रतिशत अंक, प्रथम
श्रेणी। शैलेश मानो फूले न समा रहा था, ख़ुशी से गद्गद् हो उठा, बोला भाग्यवान इतनी
बड़ी बात और तुम गुप्प बनी रही? खैर कहाँ है सरला? उसकी नज़र तो उतार लूं। निर्मला
ने सरला को आवज़ दिया, सरला जो कि आड़ में बैठी बातें सुन रही थी, झट से आई और अपने
पिता के चरणस्पर्श किये। पिता ने कहा अब तो तूने बारहवीं उत्तीर्ण कर ली, वो भी
अव्वल, अब झट से तेरी शादी कर दूंगा, तेरा भी घर परिवार बस जाएगा। ये क्या, इतना
सुनते ही सरला का फूल सा चेहरा, मुरझाये सा हो गया, रोते हुए वो कमरे की ओर चली
गयी।
बच्ची से भला ऐसे कोई बात करता है भला? अजी वो शरमा गयी
है! देखो न, कैसे दौड़े चली गयी; निर्मला ने कहा; पर आख़िरकार मामला तो कुछ अलग ही था,
आइये अब बात करते हैं, इस कहानी के अहम् किरदार की, जो है सरला, ‘सरला, यथा नाम
तथा गुण; स्वाभाव से सरल, अंडाकार चेहरा, सामान्य कद काठी, गोरा रंग और चेहरे पर
कमल की भांति गुलाबी कांति, स्वभाव से हंसमुख और शर्मीली, मृदुभाषी और अपने संसार
में मस्त, दोस्त भी इतने कम की अंगुली में गिन लें, और हाँ बीते वर्ष ही गाँव के
वैद्यराज ने नजर ठीक करने हेतु ऐनक दिया था, वही लगाती थी। हमेशा बुलबुल सी चहकने
वाली सरला, आज उदास थी, लोग लाख कहें कि, लड़कियों ने शुरू से ही अपने सपनो के
राजकुमार के बारे में सोच रखा होता है, और शादी का नाम सुनते ही ख़ुशी से फूले न
समाती हों; पर सरला ने न ऐसा कुछ सोचा था, और न ही उसकी ऐसी कुछ इच्छा थी, हाँ एक
इच्छा जरूर थी, और वो थी की खूब पढ़-लिख कर एक अच्छी डॉक्टर बनेगी, और अपने समाज की
निःस्वार्थ भाव से सेवा करेगी। क्योंकि जब वह छोटी थी, तब उसकी दादी की मौत समय पर
इलाज न होने के अभाव से हुई थी, इसी वक्तव्य को दिल में दबाकर उसने जी जान से मेहनत
भी की थी, ताकि अच्छे से मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल सके, और वह सपने सपनों को एक
नयी उड़ान दे सके, और हुआ भी, अव्वल दर्जे के अंक मिले, पर दुःख इस बात का कि अब
उनके माता पिता उसकी शादी करवाने के सपने देखने लगे।
अब सरला मन ही मन सोचने लगी, क्या अच्छे अंक लाना अभिशाप
है? आखिर क्यों माँ बाप अपने बच्चों से खुलकर नहीं पूछते कि, वो आखिर क्या करना
चाहती है, कौन सी चीज को करने में उसे ख़ुशी मिलती है, उसने अपने भविष्य के बारे
में क्या सोचा है? अब उसने निर्णय कर लिया था कि, माँ से मेडिकल कॉलेज में दाखिला
लेने का जिक्र करूंगी, और अपने सपनों को पूरा करूंगी। अपने आंसू पोंछने के बाद वह
उठी, माँ से मिलने गयी, और सारी बातें बता दी, पर हुआ बिलकुल उलट, ‘तूने देखा नहीं,
कॉलेज की लडकियां, घर से बाहर निकलते ही किस तरह से बिगड़ जाती है, लड़कों के साथ बाइक
पर घूमना, मौज करना, सिनेमा जाना और न जाने क्या क्या? हमें तो सोचते ही डर लगने
लगता है’ अपनी माँ से इस तरह के प्रत्युत्तर की उम्मीद उसे बिल्कुल नहीं थी।
(टीप: कहानी में आगे होने वाली वही पुरानी नोकझोंक व्
सरला के संघर्ष का अनुमान पाठकों पर छोड़ दिया गया है)
(दस साल बाद)
अब सरला काफी प्रसिद्द डॉक्टर बन गयी है, काफी बड़े-बड़े मेडिकल
संस्थानों से लाखों के पैकेज आये, पर अब भी वह अपने गाँव में अपनी सेवा दे रही है,
दिल से सारे मरीजों की निःस्वार्थ भाव से सेवा कर कई जिंदगियां संवार रही है, भले
ही वह धन-धान्य से समृद्ध न हो, भले ही उसके बैच के लोग विदेशों में सेवाएँ दे रहे
हों पर वह अब भी खुश है; क्योंकि उसने अपने सपने को पूरा करने का ठाना, जी जान से
मेहनत की, घर वालों से लड़ी, लाख विपत्तियाँ झेली पर अंततः आज वह अपने सपनों को
साकार करने में कामयाब रही। एक बात जो उसे प्रतिदिन खुश करती है कि, उसे हर मरीज में
अपनी स्वर्ग सिधार चुकी दादी की प्रतिमूर्ति नजर आती है। इलाज करते वक़्त मानो उसे
ऐसी अनुभूति होती है की वह अपनी दादी की सेवा कर रही हो, और अपने मरीजों के आँखों
का वात्सल्य, स्नेह उसे अनंत खुशियाँ दे जाती है।
लेखन: तरुण कुमार सोनी
(https://tarunkumarsoni.blogspot.in )
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