अंक 1: एक मुलाक़ात मुझसे - सुधीर
प्लेटफॉर्म पर ट्रेन की आवाज़ ....
बहुत सी शोर- शराबे के बीच , आने वाली गाड़ी के निर्देश ।
यात्रीगण
कृपया ध्यान दें पुणे से चलने वाली पुणे एक्सप्रेस
कुछ ही समय पश्चात प्लैटफ़ार्म क्रमांक 3 पर आने वाली है।
अक्सर जब आपको कहीं जल्दी पहुँचना होता हैं, तब आपको 1-1 मिनट की देरी बड़ी भारी लगती हैं
।
ठीक 11:55 को आखिरकार
लंबे समय के इंताजर के बाद, ट्रेन प्लेटफार्म पर आयी, मैंने भी ज्यादा देर
नहीं कि और फौरन ही ट्रेन में चड़ गया ।
बस इंतज़ार था तो बस
गाड़ी छूटने का,
तभी फ़ोन बजता हैं - हेलो ! हां
माँ , मैं बस गाड़ी में बैठ ही
गया हूँ कुछ समय मे निकल जायेगी गाड़ी । ठीक
हैं माँ आपसे
थोड़ी देर बाद बात करता हूँ ।
और गाड़ी की छुक-छुक करके शुरू
हो गयी । अकेले
सफर की एक बात ये खराब होती हैं कि आपसे बात करने वाला कोई नहीं होता हैं, बस खिड़की ही एक होती हैं जो आपके बोरियत को काटती हैं
।
खुश-किस्मती से मेरी सामने
वाली सीट पर एक परिवार था जिसमे एक छोटा बच्चा चंद मिनटों में मुझसे घुल-मिल गया । मैं भी उसके साथ उसकी
खेल शरारतों में लग गया । कुछ सांप-सीढ़ी तो कुछ लूडो कि बाजी खेल में बड़ा खुश हुआ जा रहा था । और आखिरकार वो भी थक-हारकर सो गया, अब इस 24 घंटे के
लंबे सफर को काटने के लिए मेरे पास मेरी डायरी ही हैं। कभी कभार खाली वक्त मे लिख
लेता हूँ ।
अरे बातों ही बातों में
मैं तो अपने-आप से आपको परिचय कराना ही
भूल गया ।
मैं सुधीर, पेशे से एक इंजीनियर हूँ, पुणे में एक छोटी सी कंपनी में काम करता हूँ । खाली वक्त में चंद पंक्तियां
लिख भी लेता हूँ ।
इस दौड़ भाग की ज़िन्दगी में बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाला हुआ हैं । वरना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए दुनिया के तनाव को झेलना
मेरे बस में नहीं था । खैर अब मैं अपनी ज़िंदगी से खुश हूं ।
काफी लंबे वक्त के बाद
अपने घर लौट रहा हूँ । मेरा घर भोपाल के एक छोटे से जगह से हैं । मध्यम परिवार में
जन्म लेने के कारण सुविधायें भी नपी-तुली मिली । मेरे दादाजी खेती-किसानी किया
करते थे, दादाजी की परवरिश
और पिताजी
की अपनी
मेहनत व लगन से वे सरकारी दफ्तर
में नौकरी पाने में सफल रहे । देखा जाये तो पूरा परिवार एक छोटे परिवेश से आता हैं
लेकिन पिताजी के नौकरी के कारण हम भी अब थोड़े अच्छे जगह पर आ गए हैं । मेरी माँ भी एक बिजनेस चलती हैं , वो अंग्रेजी मे
क्या कहते हैं? –शायद entrepreneur !
घर से ही वह अपना व्यवसाय करती हैं छोटे-मोटे ऊन के पर्दे,
कपड़े मे कढ़ाई वैगेरह कर आस-पास के इलाकों मे
उन्हे अच्छी कीमत पर बेंचती हैं । मेरी एक छोटी बहन भी हैं, होशियार
तो बहुत हैं लेकिन पढ़ना नही चाहती हैं , अपने दोस्तों के साथ
मिलकर एक कैफ़े चलाती हैं ।
देखा जाये तो पूरा परिवार हमेशा व्यस्त रहता हैं ऐसे में मैंने पकड़
ली पढ़ाई मैकेनिकल इंजीनियरिंग की, अब तो आप भी जानते हैं कि इंजीनियरिंग में जॉब मिलना तो अब फ्लैशसैल में
mi के फ़ोन लेना जैसा मुश्किल हो गया । ऐसे में मुझ जैसे कमजोर
व्यक्ति का अपने मुकाम तक पहुँचना किसी आश्चर्य से कम नहीं हैं ।
अपने बारे मे कहूँ तो बचपन से ही संघर्ष जारी हैं, जब छोटा था तब ही मेरे पिताजी ने एक पंडित
को दिखया था हालांकि इतना हम मानते नहीं हैं लेकिन फिर भी जब
पंडित ने हाथ देखा तब ही
कह दिया था – बेटा ! बड़ी कठोर मेहनत करनी पड़ेगी ।
..................और तब
से ही जीवन की संघर्ष जारी हैं । आज जो भी हैं हम उसका श्रेय परिवार, दोस्तों और उस व्यक्तित्व को जाता हैं ,
जिनके वजह से मैं यहा हूँ । अब मुझे पता हैं की आप का ध्यान उस व्यक्तित्व वाले शब्द पर
जरूर आया होगा । अरे भई, सब्र
करो सब बताएँगे । उन्ही के बारे में ही हैं तो ये कहानी ।
अब आप सोंच रहे होंगे
कि सब कुछ ठीक ठाक इस व्यक्ति की कहानी आखिर आप पढ़ क्यों रहे हों, तक इसका सीधा सा जवाब हैं , की बेशक मेरी कहानी इतनी मजेदार न हो लेकिन जम्मू की घाटियों की तरह काफी
उबड़-खाबड़ हैं । भले हमारी कहानी मे किसी
सुपर-एक्शन फिल्म की तरह कारनामे न किए हों, लेकिन जीवन की थोड़ी आपा-धापी तो हमने भी
सही हैं ।
बेशक रतन-टाटा न बने हों, लेकिन अपनी मनपसंद जगह
पे काम जरूर पा लिया हैं, और ज्यादा न सहीं लेकिन कुछ 2-4
किताबे भी छपी हैं, जिनमे से एक किताब को तो लोगो ने काफी पसंद भी किया हैं ।
जानता हूँ थोड़ा मिया मिट्ठू तो मैं हुआ जा रहा
लेकिन क्या करूँ, अगर आपको नही बताया तो आपको पता कैसे चलेगा ।
शायद
मेरी ये अगली किताब हो जाये, जो दोबारा लोगों को पसंद आ जाये, लेकिन मुझे इस बात से ज्यादा फर्क नही पड़ता
, बस जैसी ज़िंदगी हैं वैसे ही बस शब्दों मे
उतार रहा , शायद आपको पसंद आ जाये ।
अब
जब पढ़ना शुरू कर ही दिया हैं तो अब पूरा पढ़ के ही रुकना ....
-सुधीर
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