ज़िंदगी से बढ़कर प्यार ( GUEST Blogging )


नमस्कार दोस्तों,

      मुझे आज आप सभी के समक्ष अतिथि संपादक के रूप में अपने विचार साझा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, इसके लिए मैं तह-ए-दिल से इस ब्लॉग के मुख्य संपादक एवं मेरे मित्र प्रेम नारायण साहू जी का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा

      आप सभी को  Valentine day  की हार्दिक शुभकामनाएं !

      आज मैं आप सभी के साथ एक संस्मरण साझा करना चाहता हूँ, ये बात तब की है जब मैं ट्रेन से सफ़र कर रहा था, शादी-ब्याह का महीना था, ट्रेन में काफी हलचल थी, तब मैंने एक दृश्य देखा, एक भिखारी ट्रेन के बाहर सभी से भीख मांग रहा था, उसकी दशा काफी हैरान कर देने वाली थी; फटे कपडे, नंगे पाँव, सुर्ख लाल आँख, जो कातर नजरों से लोगों की तरफ निहार रहे थे...

और मेरे आगे एक वयोवृद्ध महिला बैठी थी, उम्र रही होगी यही कुछ सत्तर वर्ष, मैंने एक बात पर ध्यान दिया, कि वो जब भी कोई पुल या नदी आता, उसमें भगवान का स्मरण करते हुए अपनी पोटली निकलती और बंद आँखों से जितना भी रुपया निकलता उसे फेंक देती, एक बार तो उनके हाथ में एक सौ रूपये का नोट आ गया, मैंने मन ही मन सोचा अब तो ये नोट पुनः अपने पास रख लेंगी... पर क्या, मैं गलत था, उन्होंने उसे भी पानी में बहा दिया और मुस्कुरायी!

अब मेरे सब्र का बांध टूट चूका था, मैंने उनसे पूछ ही लिया आपको कोई दुःख नहीं हुआ जब आपने सौ रूपये पानी में तर्पण कर दिए??? (पर मेरे मन में यह चल रहा था की मैं उनसे कहूँ, कि “ आपको कोई दुःख नहीं हुआ जब आपने सौ रूपये पानी में व्यर्थ बहा दिए ”) , उन्होंने प्रत्युत्तर दिया कि; नहीं बेटा, जल मैया की इच्छा थी, सो पूरी हो गयी!

 मैं कुछ न कह सका!

      अब आते है उन महाशय पर जिसका मैंने पहले जिक्र किया था, जी हाँ, उस भिखारी पर,
      इस घटना को हुए चंद ही समय गुजरे होंगे, तब स्टेशन के बाहर वो भिखारी भीख माँग रहा था! मुझे याद है, मैंने उस अम्मा के आचरण से प्रभावित होकर मन ही मन उन्हें बहुत दयालु, सभी से प्रेम-भाव रखने वाली महिला मान रहा था, और मैंने भी उनसे प्रभावित होकर भिखारी को दस रूपये दे दिए!

      पर अब इसके बाद कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरे अंतःकरण को पूरी तरह झकझोर करके रख दिया, “उस अम्मा ने उस भिखारी के भीख मांगने पर उसे इतने जोर से लताड़ा, की वो बिचारा बिना कुछ कहे वहाँ से चलता बना...” 

      यहाँ मुझे एक बात समझ आई, “प्रेम” वो नहीं है कि जिसे हम देख नहीं सकते, उनके प्रति श्रद्धा भाव रखें, ये असल में “डर” है, आडंबर है, ढकोसला है!

वास्तव में भी तो यही होता आ रहा है, हम सारा दिन उसे भजते रहते है जिसे हमने देखा नहीं और अपनों के प्रति, समाज के प्रति, देश के प्रति अपना कोई कर्तव्य नहीं निभाते...

इसमें कहा की दरियादिली है की आप दिन भर ईश्वर को भजते रहो और आपको जन्म देने वाले “माता-पिता” को आप वृद्धाश्रम भेज दो???

      सच्चे मायनों में प्रेम तो परिभाषा से परे है, यह एक एहसास है शब्दों में बायां नहीं किया जा सकता! अतः आप भी प्रेम को प्रेम ही बने रहने दीजिये, इसे धूमिल न करें, और पैसे जरुरतमंदों को देकर उनकी खुशियों के भागीदारी बनें न कि आडंबर में व्यर्थ बहायें !

      अतः मैं अपनी कलम को विराम इस सन्देश के साथ देना चाहता हूँ की,

      जियो तो, दूसरों के लिए जिओ
      मरो तो, वतन के लिए मरो
      करो तो, सर्वहित करो
      अन्यथा जीवन भी मरण सामान है!

 धन्यवाद-
आपका अपना स्नेह का पात्र

 तरुण कुमार सोनी
https://tarunkumarsoni.blogspot.in/

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