बड़ा पत्थर



किसी समय मे एक मोहन नाम का व्यक्ति हुआ करता था, पेशे से वह एक मूर्तिकार था और हस्तकला मे निपुण था, उसका एक छोटा सा परिवार था जिसके साथ वह अपने गाँव में रहा करता था । मोहन का गाँव नदी के किनारे बसा हुआ था और मोहन का घर भी नदी के बिलकुल किनारे पर था । नदी से आई हुई नरम मिट्टी से मोहन मूर्तियाँ बनाया करता था, लोगों के मांग के अनुसार कभी-कभी वह पत्थरों से भी मूर्तियाँ बना लिया करता था । मोहन के साथ-साथ पूरे गाँव की आजीविका उस नदी पर निर्भर करती थी, कोई मछली पकड़ना तो, कोई नाव तो, कोई मोहन की तरह मूर्तियाँ बना कर गुज़र-बसर कर रहा था ।

मोहन अपने गाँव मे एक सुसज्जित व्यक्ति के रूप में थान किसी से बैर था, न किसी से द्वेष । उसका गुज़र-बसर भी अच्छा चल रहा था मूर्तियाँ इतनी बारीकियों से बनाता की उसकी मूर्तियाँ चंद दिनों मे बिक जाती थी, उसका नाम भी दिन-ब-दिन विख्यात होने लगा था...  क्योंकि मोहन अपने काम के प्रति काफी लगनशील था, और इसके चलते ही उसे बहुत दूर-दूर से मूर्तियों के बनाने हेतु उसे निमंत्रण आते थे लेकिन मोहन की एक बड़ी समस्या थी जिस को लेकर वह हमेशा परेशान रहा करता था ।

साल भर गाँव के लोगो के लिए आजीविका बनी नदी साल मे एक बार गाँव के लोगो के लिए मुसीबतें लाती थी , बारिश के वक़्त नदी मे हर साल बाढ़ आती और गाँव पानी मे डूब जाता था, लेकिन कहते हैं न की “जहां चाह हैं वहाँ राह हैं” सभी मुसीबतों के बावजूद लोग खुशी-खुशी रह रहे थे ।

गाँव वालों के साथ-साथ मोहन के लिए भी बाढ़ एक बड़ी समस्या थी और उसकी चिंता जायज़ भी थी । उसका घर नदी से बिलकुल सटा हुआ था थोड़ी सी बरसात से पानी की मात्रा मे बढ़ोतरी हो जाती थी और मोहन के घर मे पानी भरने लगता था । मोहन अपने घर के प्रति बड़ा चिंतित रहा करता था, वह हमेशा अपने घर को मजबूती से बनाता लेकिन मिट्टी का स्वभाव ही ऐसा था की पानी मिलते ही मिट्टी घुल जाती थी, जितना उसके बस मे था उसने सब प्रयत्न कर लिए लेकिन कुछ काम न आ सका ।

इसी बीच एक दूसरे गाँव से मोहन को किसी अमीर व्यापारी ने मूर्तियों के निर्माण के लिए अपने गाँव आने का संदेशा भेजवाया, मोहन दूसरे गाँव जाने को उत्सुक नहीं था, बरसात नजदीक थी और ऐसे समय मे वह परिवार को छोड़ना नहीं चाहता था लेकिन पत्नी के कहने पर वो चल पड़ा, कुछ ही दिनो मे वो अपने गंतव्य को पहुँच गया और वहाँ जाकर उसे पता चला की उसे एक 50 फुट ऊंची प्रतिमा बनानी है, वो भी एक पत्थर को तराश कर , मूर्ति के बदले मे वह व्यापारी मोहन को मुँहमांगी कीमत देने को तैयार था लेकिन मोहन नहीं माना । पहले तो उसने मना कर दिया लेकिन व्यापारी की ज़ोर पे वह रुक गया ..... लंबे अंतराल और कड़ी मेहनत के बाद उसने उस मूरत को बना लिया , व्यापारी उसके कार्य को देखकर अचंभित थे । व्यापारी के सोच से ज्यादा बेहतर मोहन ने मूर्ति बना दी थी वो भी अनुमानित समय से आधे में, वादे के मुताबिक व्यापारी ने मोहन से पूछा की उसे कितना धन चाहिए।
बदले में मोहन ने कहा – मालिक, आपने मुझे इस काबिल समझा इसके लिए धन्यवाद और रही बात धन की तो मुझे आपसे किसी सोने-चाँदी या भारी धन कि इच्छा नही हैं, लेकिन अगर आप मुझे इतना ही बड़ा पत्थर, जैसा आपने अपने मूरत के निर्माण के लिया दिया था वैसा पत्थर दे पाये तो मैं आपका आभारी रहूँगा । व्यापारी ने कुछ घड़ी सोचा और हांमी भर दी ।

मोहन लौट आया, कुछ ही दिनों बाद उसके द्वारा मांगा गया बड़ा पत्थर उसके गाँव मे विभिन्न परिवहनों के द्वारा पहुंचा दिया गया । अगली सुबह जब मोहन की आँख खुली तो उसके आँगन मे बड़ा से पत्थर पाया और उसके घर के बाहर बड़ी गहमा-गहमी हो रही थी । उसने घर से बाहर निकालकर लोगो की उत्सुकताओं को शांत करते हुए बताया की वो उसे उस व्यापारी के द्वारा मिला हैं ।

उस बड़े से पत्थर पर सब अपनी-अपनी राय रख रहे थे, कोई उसे बेवकूफ कह रहे थे, की-उसने इतने भारी मेहनत के बाद एक तुच्छ से पत्थर हासिल किया, कुछ उसके सोंच की सराहना कर रहे थे, कि-उसने बड़ा पत्थर को लेकर फायदा का सौदा किया हैं। बहुत दिनों तक वो पत्थर मोहन के घर के आँगन में पड़ा रहा, जब-जब लोग उसे देखते उस पर कुछ न कुछ लोग मोहन को राय जरूर दे जाते थे ।

मोहन को उस पत्थर के लिए हजारों सुझाव मिले लेकिन किसी ने ये नहीं पूछा की मोहन उस पत्थर को वास्तव मे क्यूँ लाया हैं, सब उसे अजीबों गरीब सलाह दे रहे थे कोई उसे उस पत्थर से बड़ी कोई मूरत बनाने को कहता, तो कोई उस पत्थर को काट कर मूर्ति के साँचे बनाने को कहता । जैसे जैसे दिन बीतने लोगों कि राय ताने मे बदलने लगी , लोगों का कहना था कि उस बड़े से पत्थर का इस्तेमाल न कर पाया तो उस बड़े से कठोर पत्थर का क्या मोल । मोहन रोज-रोज की बातों से तंग आने लगा था ,उसे अपने विचार लोगों के सामने कम लगने लगी थी, वह लोगो के बातों मे इतना आ गया कि उसने उस पत्थर को जिस काम के लिए व्यापरी से मांगा था वह खुद ही भूल गया, वह लोगो कि बातों को सुन-सुन कर दुविधा मे आ गया कि किसकी बाते माने।

अंतत उसने लोगों कि बात मानकर उस बड़े से पत्थर का कुछ हिस्सा भगवान की शक्ल दे कर एक मंदिर मे दान दे दिया और बचे पत्थरों से मूर्तियाँ बना कर उसे बेच आया । ऐसा करके मोहन ने नाम के साथ-साथ अच्छे पैसे बना लिए । कुछ लोग उसके इस कारनामे पर हँसे, कुछ साथ दिये लेकिन मोहन इन सब से संतुष्ट नहीं था और न उसे मन की शांति थी ।
भले उसने पुण्य का काम किया हो लेकिन फिर भी उसे उस पुण्य की खुशी नहीं मिली ।



वास्ताव मे मोहन उस बड़े पत्थर से अपने घर की नींव बनाना चाहता था, जिससे की उसका घर तेज पानी के बहाव मे भी बच सके लेंकिन हमेशा दूसरों की बातों को खुद से पहले प्राथमिकता देने वाले मोहन को यह भरी पड़ा, लोगो के कहने मे आकार उसने उस पत्थर का चाह कर भी कुछ अच्छा नहीं कर पाया और उस पैसों का भी कोई मोल नहीं रह पाया जिसे उसने उस बड़े से पत्थर से कमाया था । मोहन के सपने के साथ साथ उसके पैसे और घर दोनों बह गए ।  हर साल की तरह इस साल भी उसका घर पानी मे डूब गया ।

जिंदगी मे हमारे साथ भी कई बार ऐसा होता हैं जब हम अपनी बातों से ज्यादा दूसरी कि बातों को प्राथमिकता देने लगते हैं, भले ही क्यू न वो हमारी निजी-ज़िंदगी से जुड़ा हो । मोहन के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ, वह पत्थर को एक अच्छे इरादे से लाया था लेकिन चंद पैसो और थोड़े से नाम के कारण लोगों कि बातों मे आ गया । उसे अपने घर परिवार से ज्यादा अपनी उपलब्धियां ढिखाई दीं और अपना नाम ढिखाई दिया ।

लोग जितने होंगे बातें भी उतनी ज्यादा होंगी” और शायद उन बातों मे भी लोगो का कोई दोष भी नहीं हैं, क्योंकि उन लोगो को जैसा परिवेश मिला हैं, वो वैसे ही लोगो को मार्गदर्शित करते हैं,सुझाव देते हैं।
वो तो हमे ही अपने आप के लिए सोचना होता हैं कि हम अपने लिए क्या अच्छा कर सकते हैं ।

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