मातृत्व की छांव 💖

नमस्कार !

एक लंबे वक़्त के बाद आज फिर पुनः आपके समक्ष एक कृति लेकर प्रस्तुत हुआ हूँ, उम्मीद करता हूँ कि आपको पसंद आएगा ।

नोट – कहानी का वास्तविकता से कोई संबंध नहीं हैं, कहानी को संजीदगी से प्रस्तुत करने  के लिए, उनसे जुड़े तथ्यों को अपने कुछ जीवन के तथ्यों से मिलाकर प्रस्तुत कर रहा हूँ । किसी भी प्रकार की त्रुटि , आपत्ति और सुझाव के लिए संपर्क करें ।


अगर मैं आप से सवाल पूछूं की एक माँ की पहचान आप कैसे करोगे...?

तो आपका जवाब क्या होगा...?


शायद आपका जवाब होगा  - कि उस माँ के बच्चे को देखकर ..!

लेकिन क्या जरूरी हैं की जिस स्त्री का कोई बच्चा या संतान न हो वह क्या माँ नहीं होगी...

आप भी सुनकर थोड़ा अचंभित हो गए न...आइये आज इसी सवाल का जवाब ढूंढते हैं....

 

बहुत समय पहले की बात हैं । मुझे किसी काम के सिलसिले से बाहर, दूसरे शहर जाना पड़ा , मैंने जैसे ही अपने गंतव्य वाले शहर का नाम अपनी माँ को बताया, माँ ने झट से अपनी सहेली रुक्मणी आंटी के यहां होकर आने को कहा । कुछ देर अपने दिमाग मे ज़ोर देने के बाद याद आया की ये वही रुक्मणी आंटी  हैं जो हमारे पुराने घर के पड़ोस मे रहा करती थी ।

दरअसल, पिताजी की सरकारी नौकरी के कारण हम सरकारी आवासों मे रहा करते थे और एक अच्छा खासा वक़्त उन सरकारी आवासों मे रहने से अक्सर आस पास के लोगों से अच्छी जान-पहचान हो जाती थी । और उसी वक़्त से हम रुक्मणी आंटी को जानते हैं । तब हमारा घर बिलकुल आस-पास हुआ करता था और तब से ही माँ और रुक्मणी आंटी सहेलियाँ हुआ करती थी, दोनों मे खूब घनिष्ठता थी । लेकिन बाद में रुक्मणी आंटी ने अपना खुद का घर दूसरे शहर में बना लिया । और फिर हम भी दूसरी जगह चले गए ।

उसके बाद फोन में ही हाल-चाल संभव हो पाता था । जब अचानक से मेरे दूसरे शहर जाने की बात सामने आई तो मां को इससे बेहतर मौका न लगा, रुक्मणी आंटी से मिलवाने का । अक्सर जब भी रुक्मणी आंटी से बात होती वो अक्सर मेरे बारे में पूछा करती थी । तो इसलिए मां भी चाहती थी की मैं एक दफा मिल लूं । खैर मेरा मन तो नहीं था इसलिए मां को कई बहाने गिना रहा था ।

हालंकि जान पहचान तो पुरानी थी, पर फिर भी मिलने का उतना मन नहीं था । मेरे लिए उस वक्त लगभग दूसरा घर हुआ करता था रुक्मणी आंटी का घर , आधा वक्त इस घर में तो आधा वक्त अपने घर में खेला करता था । अब बचपन की बात अलग थी, अब इतने साल हो गए हैं । एक झिझक सा हैं फिर से उनसे मिलना 

मां से काफ़ी बहस करने के बाद मैंने निश्चय किया कि मैं अपना दोपहर का वक्त काटने के लिए उनके घर जाऊंगा । दरअसल मेरी जाने वाली ट्रेन सुबह थी और वापस लौटने वाली ट्रेन शाम को थी जबकि मेरा काम मात्र 1 या 2 घंटे में समाप्त हो जाने वाला था इसलिए मैंने निश्चय किया कि दोपहर का वक्त बिताने के लिए मैं उनके घर हो आऊंगा, जिससे मां कि बात भी पूरी हो जाएगी और मेरा समय भी व्यतीत हो जाएगा।

क्यूंकी अब आप कहानी की मूल सूत्रधार लोगों को तो जान ही चुके हैं इसलिए मैं उन्हे आंटी ना कहकर जो मैं अपने बचपन में उन्हें कहा करता था उन्हीं शब्दों से उनका संबोधन करूंगा , क्योंकि मां और रुकमणी आंटी बिल्कुल बहनों की तरह रहते थे इसलिए मैं उन्हें बचपन में रुक्मणी मौसी कहा करता था ।

आखिरकार यात्रा का दिन करीब आयासुबह 8 बजे की ट्रेन से में अपने गंतव्य वाले शहर पर पहुंच गया और सौभाग्य से मेरा काम दोपहर 12 बजे तक संपन्न भी हो गया । मैने माँ को फ़ोन करके मौसी के घर का रास्ता पूछा । मां ने मेरे फ़ोन पर, आंटी के घर का रास्ता भेजा । ऑटो पकड़कर, मैं आंटी के घर की ओर चल पड़ा । 

दरवाजे पर नेमप्लेट देखकर ही मैं समझ गया की यही घर मौसी का हैं । दरवाजे के करीब जाते ही दरवाजे पे खड़ा कुत्ता मुझ पर भौकने लगा, थोड़ी देर तो मैं घबराया फिर हिम्मत करके गेट के पास लगे डोर- बेल को दबाया, तब तक ये हमारे डॉगी भाई साहब हम पर भौंक ही रहे थे । थोड़ी देर बाद रुकमणी मौसी बाहर आई । देखते ही मुझे, अरे गोलू कहकर उन्होंने पुकारा, बचपन के इस नाम को मैंने बहुत पहले ही भुला दिया था, घर में कभी-कभार मां इस नाम से पुकारती हैं, पर मैं ही उन पर झुंझला जाता हूं, अब बचपन के नाम को बचपन में रहने दिया जाए वही बेहतर हैं । ख़ैर मौसी के इस संबोधन से मैं 2 मिनट के लिए अपने बचपन की यादों में चला गया था ।

मेरे अंदर जाने पर भी डॉगी का को गुर्राया स्वभाव ऐसा था जैसे किसी ने उसका खाना झीन लिया हो , मौसी ने डॉगी अर्थात् कुत्ते को शांत करवाया । और बदले में उसका नाम लल्लू लिया । ये नाम बड़ा अचरज भरा था क्यूंकि ज्यादातर कोई अपने कुत्ते का नाम ऐसे नहीं रखता है । फिर मैंने लल्लू को नजर अंदाज़ करते हुए घर के अंदर जा पहुंचा । मौसी के साथ थोड़ी बातचीत के साथ मौसी ने मुझे नास्ता भी करवाया, जैसे ही नाश्ते कि प्लेट सामने चाय की मेज़ पर कर रखी गई, वैसे ही घर के दूसरे मेहमान का आगमन हुआ, ये कोई इंसान नहीं ये एक बिल्ली हैं, हम ज्यादातर लोग बिल्ली को देखकर उससे गुर्राने जैसा करते हैं, मैंने भी वैसा ही किया ताकि वह भाग जाए, बिल्ली ने मुझे अजनबी भाव से देखा लेकिन मौसी के देखते वह पिघल गई और सोफे पर चड़ मौसी तक पहुंच गई, मैं भी समझ गया कि ये भी मौसी का एक पालतू जानवर हैं । मौसी ने उसे देखते हुए कहा -

अरे मिसरी आ गई तू, आज दिन भर दर्शन नहीं दिए ।

बिल्ली की नज़र मेरे नाश्ते पर थी । 

मौसी ने कहा - रुक तेरे लिए मैं लाती हूं, कहकर वह चले गई । और मौसी बिल्ली को सोफे पर छोड़ कर चली गई, हम जैसे लोग जिनके यहां पर पालतू जानवर नहीं होता उनके लिए किसी जानवर को उस तरह उस तरीके का स्नेह कर पाना मुश्किल होता है ऐसा नहीं हैं कि हमें वे पसंद नहीं लेकिन तुरंत ही उनसे नज़दीकी नहीं बन पाती हैं।

बिल्ली के सोफे पर रुकने से, मैं थोड़ा घबराया जरूर था । मुझे लग रहा था कि यह मुझ पर झपट्टा ना मार दे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । कुछ देर बाद मौसी एक दूध का कटोरा लेकर आई और उसे बिल्ली के सामने रख दिया, जिससे बिल्ली दूध पीने लगी । मेरी बड़ी जिज्ञासा इस बात को जानने में थी, कि बिल्ली और कुत्ता एक ही घर में कैसे रहते हैं तो मैंने तपाक से मौसी से कहा -

मौसी ये घर में एकसाथ रहते कैसे हैं ? .... मेरा मतलब है लल्लू और मिसरी ...! (यहां पर नामों का अभिप्राय जरूरी है क्योंकि मौसी के लिए वो पशु मात्र नहीं थे ।)

मौसी ने जवाब में कहा - नहीं ! ये मिसरी तो कभी कभार ही आती हैं और ये लल्लू तो घर में ही शेर हैं, मिसरी के सामने चूं भी नहीं करता।

मैंने हंस कर सहमति जताई ।

बातों ही बातों मे मैंने मौसी से घर-परिवार और मेरे बारे मे बातचीत की । पूरे इस बातचीत के दौर मे मौसी के लल्लू और मिसरी कमरे मे ही रहे । कुछ देर बाद दोपहर के खाने का वक़्त हो गया । खाने के बाद मौसी ने अपने घर के बगीचे और घर के तीसरे पालतू पशु से मिलाया वैसे तो ये एक पक्षी था.. । मौसी ने एक तोता भी पाल रखा था । पर वह अक्सर खुले मे ही रहता हैं , ऐसा मौसी ने बताया । इतना ही नहीं यहां शाम के वक़्त कुछ आस पास के पक्षी भी बगीचे मे आया करते थे... मौसी का स्नेह इतना ज्यादा था की वो अलग से इन सभी पशु पक्षी के लिया खाना बनाया करती थी... चिड़ियों के लिए खास दाने का मटका होता था जिसकी वजह से आस पास के पक्षी भी शाम को दिखाई पड़ते थे । घर के बगीचे को देखकर भी यही लगता था कि किसी ने अपने पूरे दिल, मन से इसे सजाया हो....।

देखते ही देखते वक्त हो चला मेरे जाने का...ये जो कुछ वक़्त मुझे मिला, लगा ही नहीं की मैं किसी और के यहां आया हूँ । लगा मानो किसी अपने करीब के रिश्तेदार के यहाँ आया हो... बचपन की बहुत सी यादें भी उनसे मिलने बस से ताजा हो गई । जाते वक़्त मौसी ने, माँ के लिए कुछ लड्डू और मैदे से बने पकवान भी दिए । जाते वक़्त मौसी के ये भाव बड़ा भावुक कर देने जैसा लग रहा था । कहने को तो मात्र माँ और रुक्मणी आंटी पड़ोसी थे पर सहजता ऐसी सी हो गयी थी की मानो दूसरा घर । घर पहुँचते ही मैंने मौसी से दिये प्यार, सत्कार और व्यवहार के बारे मे बताया....

माँ ने भी मुस्कुराकर मेरी बातों को सुना और कहा - वो शुरू से ऐसी ही हैं ....

मैंने लल्लू, मिसरी, तोता और बगीचे का जिक्र भी किया... माँ ने बताया भले रुक्मणी मौसी के खुद के बच्चे न हो पर शुरू से ही उनका लाड़ पशु - पक्षी, जंतु- जनवार मे रहा था । माँ बताती हैं, वो कई बार मुझे रुक्मणी आंटी के पास छोड़कर चली जाती थी और मैं बिना शिकायत के उनके पास घंटो रह जाया करता था ।

भले ही भगवान की जैसी भी मर्ज़ी हो पर उसका मातृत्व उससे कोई नहीं छीन सकता । ये बात माँ की मुझे बड़ी गहरी लगी । सच मे रुक्मणी मौसी को देखकर कोई नहीं कह सकता कि उनके खुद के बच्चे नहीं हैं । उनका स्नेह प्यार हमेशा से अपार रहा हैं ।

कभी कभी साधारण से लगने वाले ये भाव भी एक गहरा प्रभाव डालते हैं ।

उम्मीद करता हूँ आपको ये छोटी सी टिप्पणी अच्छी लगी होगी, आपकी जैसी भी प्रतिक्रिया हैं, जरूर साझा करें ।

धन्यवाद !

प्रेम नारायण साहू

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