अम्मा का बर्थडे
नमस्कार !
एक लंबे समय के बाद आज ब्लॉग मे कुछ प्रेषित
करने जा रहा हूँ, ऐसा नहीं हैं की पोस्ट किया गया ब्लॉग आज ही लिखा गया हैं , चूंकि मेरे लिए भी ये संभव नहीं हो
पता की किसी ब्लॉग की कहानी को एक ही दिन मे लिख कर प्रेषित कर दूँ, तो ये हो सकता हैं की ये मेरी नोट-बुक मे काफी समय से रहा हों । समय की व्यस्तता
के कारण शायद यह आज संभव हो पाया होगा ।
अब समय की व्यस्तता पे इतना कहूँगा की " आजकल
हम व्यस्त रहते हुये भी व्यस्त नहीं होते "
चलते हैं कहानी की ओर –
हम सभी के बचपन में ऐसी कोई न कोई बात
जरूर होती हैं जो हमें ताउम्र याद होती हैं । मेरी भी उम्र की एक ऐसी ही खास कहानी
हैं जिसका मैं आज आपसे जिक्र कर रहा हूं ।
बचपन में आप सभी ने तो एक दानव दैत्य की कहानी
तो पढ़ी ही होगी ....जिसमें एक दानव होता है और जिसके पास बहुत सुंदर बगीचा होता
हैं..... और वह दानव उस बगीचे में बच्चों को खेलने नहीं देता है । कुछ उसी से
मिलती जुलती कहानी, आज मैं आपके समक्ष कह
रहा हूं हालांकि इस कहानी में कोई दानव- दैत्य तो नहीं होता हैं ।
मुझे आज भी याद है वो अम्मा और अंकल का
घर, दरअसल मुझे अम्मा और अप्पा कहना चाहिए लेकिन अंकल कभी अप्पा बन ही न सके , पूरे गली के बच्चों को उनसे से डर लगता था अगर कोई भी बॉल उनके बगीचे में गई
वह कभी वापस नहीं आई....
लेकिन एक अम्मा होती थी जो बच्चों पर
लाड़ उड़ेलती थी, अंकल हमेशा गुस्से में ही होते थे, बच्चों की आवाज़ आते ही लाठी लेकर सरपट बाहर दौड़ पढ़ते थे। कोई भी बच्चा उनके
घर के आस-पास भी खेलने से डरता था , लेकिन
स्वभाव से विपरीत अम्मा थी। हालंकि अंकल के सामने कुछ न कहती पर अंकल के जाने के बाद बॉल लौटा दिया करती
थी । बच्चे को खेलता देख ऊन और सलाई लेकर कुर्सी लगाकर बैठ जाया करती थी, हम भी उन्हें बातों ही बातों में अपने खेल में शामिल कर लिया करते थे । कभी
अंपायर तो कभी गिल्ली- डंडा की कप्तान बन
जाय करती थी । भले अपने खुर्सी से उठती न हो लेकिन वही से ही बच्चों के साथ ही, हो लिया करती थी । जब-जब अम्मा बाहर होती अंकल का डर नहीं हुआ
करता था ।
वैसे तो अम्मा के घर में कोई बगीचा नहीं
था, असल में उनका घर सड़क के अंत पर पड़ता था, सड़क के किनारे
होने से बहुत जगह होती थी, खेलने के लिए पर्याप्त और गाड़ियों की
भी चिंता नहीं होती थी । लेकिन वही अंकल का डर तो सभी को होता था लेकिन हमारे
मोहल्ले के बच्चे थोड़ी बहुत हिम्मत करके, अम्मा के सहारे
से वहां जाया करते थे । थोड़े दिनों में हमें अम्मा की और अम्मा को हमारी आदत
पड़ने लगी, मोहल्ले के एक-एक बच्चे को अम्मा नाम से
जानती थी । किसी के खेलने न आने पर उसके बारे में पूछती...
खेलते-खेलते अम्मा से हमें लगाव सा हो
गया उनके बिना किसी खेल में मजा नहीं आता था, वो जब तक कुर्सी
पर न बैठती तब तक हमारा खेल शुरू नहीं होता था ।
एक दिन की बात है गर्मियों की छुट्टियां
चल रही थी, अक्सर हम दिन में ही अम्मा के यहां चल
दिया करते थे उस दिन अम्मा ने हमें एक-एक लड्डू दिए । वैसे तो पानी और फल सामान्य थे
लेकिन लड्डू पाकर सबके मन में जिज्ञासा थी कि आखिर आज मीठे लड्डू कि वजह क्या है।
अम्मा से मैंने पूछा कि - अम्मा आज लड्डू
कैसे ??
अम्मा ने कहां - मेरा आज जन्मदिन है न
...वहीं बर्थ डे...(मुस्कुराते हुए कहा)
हम सभी बच्चे छोटे थे, बच्चों में ज्यादा समझ नहीं थी, बस बर्थडे सुनते
ही बच्चों के मन में कई सवाल से थे ... हमारा जैसे बचपन में बर्थडे सेलिब्रेट किया
जाता है । हमें लग रहा थी की कुछ उसी तरह अम्मा भी अपना करती होगी । हम बच्चे, अम्मा से हजार सवाल पूछ रहे थे ....आपके दोस्त हैं कि नहीं , आज आपको खिलौने मिले कि नहीं, आज शाम को गुब्बारे
होंगे कि नहीं - कुछ का अम्मा जवाब दे रही थी और कुछ का नहीं । हम में से किसी ने
पूछा कि अम्मा........ और केक....
अम्मा मुस्कुरा के कहती हैं....अरे मैं
बच्ची थोड़ी ना हूं... जो मेरे लिए केक आएगा....तुमलोग भी न कहकर....घर के भीतर
चले जाती है....
मन में प्रबल इक्षा थी कि अम्मा के लिए
केक खरीदूं लेकिन जब जेब में हाथ डाला तो एक 5 रुपए का सिक्का
बाहर आया....जान तो चुका था कि यह मेरे अकेले के बस की बात नहीं हैं ।
उस समय बच्चों में चीजे इतनी सहज थी कि
ज्यादा बातचीत की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। थोड़ी-बहुत आपसी काना-फूसी मे हम बच्चों ने तय कर
लिए कि हमें क्या करना हैं ! आपस में हम
सबने 10,
5 रुपए मिला कर अम्मा के लिए केक खरीदने का सोचा । उस समय
केक 55 रूपये में मिलता था।
थोड़ी
ही देर में हम बच्चे पास के ही एक बेकरी की दुकान पर गए । पहले के समय जब महीने के
जेब खर्च के लिए पैसे घर से दिए जाते थे तब हम अक्सर सबसे पहले बेकरी जाया करते थे, समोसा और पेटीज उस समय सबके पसंदीदा हुआ करते थे । बेकरी की दुकान पर सबका मन तो
एक बार जरूरु डगमगाया होगा की अम्मा की केक के बजाय , हम सब अपनी मनपसंद चीज खा लें । लेकिन हम बच्चे भी निश्चय कर
के गए थे कि हमें केक ही लेना है ।
आज जब इन बातों को सोचता हूँ तो लगता हैं
की हम बच्चे कितने समझदार थे क्यूंकी जेब
में रखे हुए पैसे से केक के अलावा किसी और चीज में खर्च करना हम सभी बच्चों के लिए
आसान था फिर भी हमने अपनी पसंद की चीजों को प्राथमिकता न देते हुये अम्मा के लिए केक
ही खरीदा ।
केक लेकर हम फौरन अम्मा के घर की और
भागे...केक को बरामदे की मेज़ पर रखकर, हम सब ने बगीचे
के नल से हाथ धोए, तब तक भी कहीं अम्मा नजर नहीं आ रही
थी ।
हम में से विनय(पड़ोस में रहने वाला
बच्चा) ने केक को मेज पर रखा, पीछे से अंकल की आवाज़
आती हैं...
सब बच्चे घबरा कर बरामदे से नीचे उतर जाते
हैं ।
अंकल के करीब आने पर उन्हें पता चल जाता
है कि हम अम्मा के लिए केक लेकर आए है ...
आज तक हमेशा डांटते-फटकारते अंकल को पहली
बार हमने मुस्कुराते देखा ,
अंकल ने आवाज़ दिया - अरे सुनती हो
भाग्यवान... देखो, बच्चे क्या लेकर आए तुम्हारे लिए ...
अम्मा धीरे से बाहर निकलती हैं, अम्मा के बाहर निकलते ही हम बच्चों ने उनके लिए हैप्पी बर्थडे वाला गाना
गुनगुनाना शुरू कर दिया । अम्मा के चेहरे के भाव को शब्दों में बताना जरा मुश्किल
है । अंकल के चेहरे पर भी पहली बार इतनी हंसी देख,
थोड़ा अजीब सा लग रहा था । उस वक्त में अंकल ने केक को बक्से से निकालने में हमरी
मदद की और उनकी मदद से ही हमने अम्मा से केक भी कटवाया ।
केक हालांकि हम लाए तो अम्मा के लिए थे, लेकिन थे तो आखिर हम बच्चे ही । अम्मा से ज्यादा केक हमने
खाया होगा । अम्मा के केक काटने के बाद हम बच्चों में होड़ लगी कि अम्मा को केक का
एक निवाला खिलाया जाए , बेचारी अम्मा भी दुविधा
में धी कि किसके हाथ से खाया जाए । अम्मा के कहते ही हम बच्चों भी केक पर टूट पड़े
।
इन सब में एक बात जिसने मुझे इस ब्लॉग को
लिखने पर मजबूर किया । इस पूरे वाक़िए के दौरान अम्मा के चेहरे पर एक अलग सी खुशी
थी, पूरा समय अम्मा, हम बच्चों को ही देखते रही, कि कैसे हमने उनके लिए गाना गाया, कैसे हमारे
द्वारा उनके लिए केक लाना, गाना- गुन गुनाना....सब कुछ । अम्मा
के लिए वो याद जीवन पर्यंत के लिए उनके ज़हन मैं कैद हो गया । शायद उन्होने हम बच्चों से ये उम्मीद न की थी ।
जब हम छोटे थे, तो कभी हमने ये महसूस नहीं किया, और बचपन में भी
जब हमने ये सब किया, कोई खास विशेष सोच नहीं थी, बस उस चंद समय में जो भी हम सब बच्चों ने मिलकर सोचा उस बस आपस के सहयोग से
पूरा कर लिया। फिर भी हम बच्चों कि शायद यही नियत रही होगी कि जो अम्मा हमारे लिए इतना
करती हैं उनके लिए इतना करना तो जरूरी हैं और शायद यही कारण हैं कि हम बच्चों ने ये
सब करने के बारे मे ज्यादा नहीं सोचा ।
बचपन के बाद दोबारा कभी अम्मा से मुलाकात
न हो सकी,
लेकिन अभी जब भी वो पल याद आते है, एक ख़ास बचपन की यादों में मै, सराबोर सा हो
जाता हूं ।
धन्यवाद ! अपना कीमती समय इस ब्लॉग को देने
के लिए !
स्वस्थ रहे , खुश रहे और अपना ख्याल
रखे ।
Comments
Post a Comment